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Showing posts from September, 2015

अमीरुल्लाह तस्लीम

गर यही है आदत-ए-तकरार हँसते बोलते मुँह की एक दिन खाएँगे अग्यार हँसते बोलते थी तमन्ना बाग-ए-आलम में गुल ओ बुलबुल की तरह दिल-लगी में हसरत-ए-दिल कुछ निकल जाती तो है मेरी किस्मत से जबान-ए-तीर भी गोया नहीं आप को देखा सर-ए-बाजार हँसते बोलते वर्ना क्या क्या जखम-ए-दामनदार हँसते बोलते बैठ कर हम तुम कहीं ए यार हँसते बोलते आज उज्र-ए-इत्तिका तस्लीम कल तक यार से बोसे ले लेते हैं हम दो-चार हँसते बोलते

समझो गजल हुई

मिली जो किसी से नज़र तो समझो गजल हुई रहे न अपनी ही खबर तो समझो  गजल  हुइ मिला के नजरों को वाले हना हया से पी झुका ले कोइ नजर  तो समजो गजल  हुइ इधर मचल-कर उन्हें जो पुकारे जूनून  मेरा   धड़क उठे उधर दिल तो  उदास बिस्तर की सिलवटेँ जब तुमको  चुभें न सो सको रात भर तो समझो गजल हुइ वह बदगुमान हो तो शेर सूझे न शायरी, वह मेहरबान हो जफ़र तो समझो गजल हुइ

फैज अहमद फैज

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए उस के बाद आए जो अजाब आए बाम-ए-मीना से महताब उतरे दस्त-ए-साकी में आफताब आए हर रग-ए-खून में फिर चरागां हो सामने फिर वो बे-नकाब आए उम्र के हर वर्क पे दिल की नज़र तेरी मेहर-ओ-वफा के बाब आए कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए न गई तेरे ग़म की सरदारी दिल में यूँ रोज इन्कलाब आए जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी गोया हर सम्त से जवाब आए फ़ैज़ थी राह सर-ब-सर मंज़िल हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए.

मोमिन खान मोमिन

आँखों से हया टपके है अन्दाज तो देखो है बुल-हवसों पर भी सितम नाज तो देखो उस बुत के लिए मैं हवस-ए-हूर से गुजरा इस इश्क-ए-ख़ुश-अंजाम का आगाज तो देखो चश्मक मेरी  वहशत पे है क्या हज़रत-ए-नासेह तर्ज-ए-निगह-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ तो देखो अरबाब-ए-हवस हार के भी जान पे खेले कम-तालई-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ तो देखो मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक शोला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो दें पाकी-ए-दामन की गवाही मिरे आँसू उस यूसुफ़-ए-बेदर्द का एजाज़ तो देखो जन्नत में भी मोमिन न मिला हाए बुतों से जौर-ए-अजल-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो देखो

मोमिन खान मोमिन

असर उस को ज़रा नहीं होता रंज राहत-फजा नहीं होता. चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं शौक जोर-आजमा नहीं होता. उस ने क्या जाने क्या किया ले कर इम्तिहाँ कीजिए मेरा जब तक सो तुम्हारे सिवा नहीं होता गरचे इक मुद्दआ नहीं होता तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता सब का दिल एक सा नहीं होता तुम हमारे किसी तरह न हुए तुम मिरे पास होते हो गोया हाल-ए-दिल यार को लिक्खूँ क्यूँकर बेवफ़ा कहने की शिकायत है दिल किसी काम का नहीं होता क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तर ऐ मोमिन जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता आह तूल-ए-अमल है रोज़-फ़ुज़ूँ दस्त-ए-आशिक़ रसा नहीं होता हर्फ़-ए-नासेह बुरा नहीं होता रहम बर-ख़स्म-ए-जान-ए-ग़ैर न हो हाथ दिल से जुदा नहीं होता सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता. ज़िक्र-ए-अग़्यार से हुआ मालूम जब कोई दूसरा नहीं होता किस को है ज़ौक़-ए-तल्ख़-कामी लेक दामन उस का जो है दराज़ तो हो एक दुश्मन कि चर्ख़ है न रहे वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता

जां निसार अख्तर

अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं कुछ शेर फकत उनको सुनाने के लिए हैं अब ये भी नहीं ठीक के हर दर्द मिटा दें कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं देखूं तेरे हाथों को तो लगता है, तेरे हाथ मंदिर में फकत दीप जलाने के लिए हैं ये इल्म का सौदा, ये रिसालें, ये किताबें एक शख्स की याद को भुलाने के लिए हैं

शेख इब्राहीम जौक

अब तो घबरा के ये कहते हैं के मर जायेंगे मरके भी चैन न पाया, तो किधर जायेंगे तुम ने ठहराई अगर ग़ैर के घर जाने की तो इरादे यहाँ कुछ और ठहर जायेंगे खाली ए चारागरों होंगे बहुत मरहम दा पर मेरे जख्म नहीं ऐसे कि भर जायेंगे पहुँचेगे राहगुज़र-ए-यार तलक क्यूँ कर हम पहले जब तक न दो आलम से गुज़र जायेंगे  शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊँ पर मुझे डर है के वो देखकर डर जायेंगे हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुझपर बलकि पूछेगा खुदा भी, तो मुक़र जायेंगे आग दोज़ख की भी हो जायेगी पानी-पानी जब ये आसी अर्क़-ए-शर्म से तर जायेंगे नहीं पायेगा निशाँ कोई हमारा हरगिज़ हम जहाँ से रविश-ए-तीर-ए-नज़र जायेंगे सामने चश्म ए गुहारबार के कह दो  दरिया चढ़ के गर आये तो नजरों से उतर जायेंगे लायें जो मस्त हैं तुरबत पे गुलाबी आँखें और अगर कुछ नहीं, दो फूल तो धर जायेंगे रुख ए रोशन से नकाब अपने उलट देखो तुम मेहर ओ माह नजरों से यारों की उतर जायेंगे हम भी देखेंगे की कोई अहल ए नजर है कि नहीं   याँ से जब हम रविश-ए-तीर-ए-नज़र जायेंगे 'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगडे हुए हैं मुल्लाह उनको मैखाने में ले आओ सँवर जायेंगे

नासिर काजमी

अपनी धुन में रहता हूँ, मैं भी तेरे जैसा हूँ ओ पिछली रुत के साथी, अब के बरस मैं तन्हा हूँ तेरी गली में सारा दिन, दुख के कंकर चुनता हूँ मुझ से आँख मिलाये कौन, मैं तेरा आईना हूँ मेरा दिया जलाये कौन, मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ तेरे सिवा मुझे पहने कौन, मैं तेरे तन का कपड़ा हूँ तू जीवन की भरी गली, मैं जंगल का रस्ता हूँ अपनी लहर है अपना रोग, दरिया हूँ और प्यासा हूँ आती रुत मुझे रोयेगी, जाती रुत का झोंका हूँ

सागर निजामी

अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठाके हाथ देखा जो मुझ को छोड़ दिए मुस्कुराके हाथ बेसाख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गईं क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुराके हाथ ये भी नया सितम है हिना तो लगाएँ ग़ैर और उस की दाद चाहें वो मुझ को दिखाके हाथ बे-इख़्तियार होके जो मैं पाओं पर गिरा ठोड़ी के नीचे उस ने धरा मुस्कुराके हाथ क़ासिद तिरे बयाँ से दिल ऐसा ठहर गया गोया किसी ने रख दिया सीने पे आके हाथ ऐ दिल, कुछ और बात की रग़बत न दे मुझे सुननी पड़ेंगी सैंकड़ों उस के लगाके हाथ वो कुछ किसी का कहके सताना सदा मुझे वो खींच लेना परदे से अपना दिखाके हाथ देखा जो कुछ रुका मुझे तो किस तपाक से गर्दन में मेरी डाल दिए आप आके हाथ कूचे से तेरे उठें तो फिर जाएँ हम कहाँ बैठे हैं याँ तो दोनों जहाँ से उठाके हाथ पहचाना फिर तो क्या ही नदामत हुई उन्हें पंडित समझके मुझ को और अपना दिखाके हाथ देना वो उस का साग़र-ए-मै याद है निज़ाम मुँह फेरकर उधर को इधर को बढ़ाके हाथ .

अहमद फराज

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती ये ख़ज़ाने तुझे मुम्किन है ख़राबों  में मिलें तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें ग़म-ए-दुनिया  भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो नश्शा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें आज हम दार पे खेंचे गये जिन बातों पर क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माज़ी  है "फ़राज़" जैसे दो शख़्स तमन्ना के सराबों  में मिलें