दमकते रूप की दीपावली जलाई हुई
लहू में डूबी उमंगों की मौत रोक ज़रा
फ़िराक़ गोरखपुरी
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राहों में जान घर में चराग़ों से शान है
दीपावली से आज ज़मीन आसमान है
ओबैद आज़म आज़मी
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दीपावली मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है
ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है
नज़ीर बनारसी
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आँख की छत पर टहलते रहे काले साए
कोई पलकों में उजाले भरने नहीं आया
कितनी दिवाली गयी, कितने दशहरे बीते
इन मुंडेरों पे कोई दीप धरने नहीं आया
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घर की क़िस्मत जगी घर में आए सजन
ऐसे महके बदन जैसे चंदन का बन
आज धरती पे है स्वर्ग का बाँकपन
अप्सराएँ न क्यूँ गाएँ मंगलाचरण
ज़िंदगी से है हैरान यमराज भी
आज हर दीप अँधेरे पे है ख़ंदा-ज़न
उन के क़दमों से फूल और फुल-वारियाँ
आगमन उन का मधुमास का आगमन
उस को सब कुछ मिला जिस को वो मिल गए
वो हैं बे-आस की आस निर्धन के धन
है दीवाली का त्यौहार जितना शरीफ़
शहर की बिजलियाँ उतनी ही बद-चलन
उन से अच्छे तो माटी के कोरे दिए
जिन से दहलीज़ रौशन है आँगन चमन
कौड़ियाँ दाँव की चित पड़ें चाहे पट
जीत तो उस की है जिस की पड़ जाए बन
है दीवाली-मिलन में ज़रूरी 'नज़ीर'
हाथ मिलने से पहले दिलों का मिलन
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हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली
का हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
नज़ीर अकबराबादी
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चार जानिब है यही शोर दिवाली आई
साल-ए-माज़ी की तरह लाई है ख़ुशियाँ इमसाल
कँवल डिबाइवी
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घुट गया अँधेरे का आज दम अकेले में
हर नज़र टहलती है रौशनी के मेले में
नज़ीर बनारसी
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भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
अटल बिहारी वाजपेयी
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पहली दीवाली
मनाई थी जनता ने
रामराज्य की!
उस प्रजा के लिए
कितनी थी आसान
भलाई और बुराई
की पहचान।
अच्छा उन दिनों होता था-
बस अच्छा
और बुरा
पूरी तरह से बुरा।
मिलावट
राम और रावण में
होती नहीं थी
उन दिनों।
रावण रावण रहता
और राम राम।
बस एक बात थी आम
कि विजय होगी
अच्छाई की बुराई पर
राम की रावण पर।
द्वापर में भी कंस ने
कभी कृष्ण का
नहीं किया धारण
रूप
बनाए रखा अपना
स्वरूप।
समस्या हमारी है
हमारे युग के
धर्म और अधर्म
हुए हैं कुछ ऐसे गड़मड़
कि चेहरे दोनो के
लगते हैं एक से।
दीवाली मनाने के लिए
आवश्यक है
रावण पर जीत राम की
यहां हैं बुश
और हैं सद्दाम
दोनों के चेहरे एक
कहां हैं राम ?
तेजेंद्र शर्मा
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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
सोहन लाल द्विवेदी
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जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
गोपाल दास नीरज
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कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
हरिवंश राय बच्चन
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आई दिवाली लाई खिलौने, रँग बिरँगे लम्बे बौने।
लिपे पुते घर लगे सुहाने, चलते हैं हम दीप जलाने।
चीजों की भरमार बड़ी है, सड़क समूची पटी पड़ी है।
लगा दिवाली का है मेला, हटा अँधेरा फटा उजाला।
दूर दूर तक दीप जले हैं, दिखते कितने भव्य भले हैं।
बल्ब सजे घर घर इतने हैं, पेड़ों में पत्ते जितने हैं।
लड़के बने सिपाही बाँके, शोर बढ़ाते छुड़ा पटाखे।
सीमा पर दुश्मन आयेगा, इनसे पार नहीं पायेगा।
गीत खुशी के गाते हैं हम, प्रभु से यही मनाते हैं हम।
चाहे जैसी निशि हो काली, ज्योतित कर दे उसे दिवाली।
श्रीनाथ सिंह
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लहू में डूबी उमंगों की मौत रोक ज़रा
फ़िराक़ गोरखपुरी
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राहों में जान घर में चराग़ों से शान है
दीपावली से आज ज़मीन आसमान है
ओबैद आज़म आज़मी
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दीपावली मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है
ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है
नज़ीर बनारसी
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आँख की छत पर टहलते रहे काले साए
कोई पलकों में उजाले भरने नहीं आया
कितनी दिवाली गयी, कितने दशहरे बीते
इन मुंडेरों पे कोई दीप धरने नहीं आया
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घर की क़िस्मत जगी घर में आए सजन
ऐसे महके बदन जैसे चंदन का बन
आज धरती पे है स्वर्ग का बाँकपन
अप्सराएँ न क्यूँ गाएँ मंगलाचरण
ज़िंदगी से है हैरान यमराज भी
आज हर दीप अँधेरे पे है ख़ंदा-ज़न
उन के क़दमों से फूल और फुल-वारियाँ
आगमन उन का मधुमास का आगमन
उस को सब कुछ मिला जिस को वो मिल गए
वो हैं बे-आस की आस निर्धन के धन
है दीवाली का त्यौहार जितना शरीफ़
शहर की बिजलियाँ उतनी ही बद-चलन
उन से अच्छे तो माटी के कोरे दिए
जिन से दहलीज़ रौशन है आँगन चमन
कौड़ियाँ दाँव की चित पड़ें चाहे पट
जीत तो उस की है जिस की पड़ जाए बन
है दीवाली-मिलन में ज़रूरी 'नज़ीर'
हाथ मिलने से पहले दिलों का मिलन
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हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली
का हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
नज़ीर अकबराबादी
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चार जानिब है यही शोर दिवाली आई
साल-ए-माज़ी की तरह लाई है ख़ुशियाँ इमसाल
कँवल डिबाइवी
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घुट गया अँधेरे का आज दम अकेले में
हर नज़र टहलती है रौशनी के मेले में
नज़ीर बनारसी
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भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल
वर्त्तमान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
अटल बिहारी वाजपेयी
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पहली दीवाली
मनाई थी जनता ने
रामराज्य की!
उस प्रजा के लिए
कितनी थी आसान
भलाई और बुराई
की पहचान।
अच्छा उन दिनों होता था-
बस अच्छा
और बुरा
पूरी तरह से बुरा।
मिलावट
राम और रावण में
होती नहीं थी
उन दिनों।
रावण रावण रहता
और राम राम।
बस एक बात थी आम
कि विजय होगी
अच्छाई की बुराई पर
राम की रावण पर।
द्वापर में भी कंस ने
कभी कृष्ण का
नहीं किया धारण
रूप
बनाए रखा अपना
स्वरूप।
समस्या हमारी है
हमारे युग के
धर्म और अधर्म
हुए हैं कुछ ऐसे गड़मड़
कि चेहरे दोनो के
लगते हैं एक से।
दीवाली मनाने के लिए
आवश्यक है
रावण पर जीत राम की
यहां हैं बुश
और हैं सद्दाम
दोनों के चेहरे एक
कहां हैं राम ?
तेजेंद्र शर्मा
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हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
सोहन लाल द्विवेदी
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जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
गोपाल दास नीरज
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कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।
हरिवंश राय बच्चन
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आई दिवाली लाई खिलौने, रँग बिरँगे लम्बे बौने।
लिपे पुते घर लगे सुहाने, चलते हैं हम दीप जलाने।
चीजों की भरमार बड़ी है, सड़क समूची पटी पड़ी है।
लगा दिवाली का है मेला, हटा अँधेरा फटा उजाला।
दूर दूर तक दीप जले हैं, दिखते कितने भव्य भले हैं।
बल्ब सजे घर घर इतने हैं, पेड़ों में पत्ते जितने हैं।
लड़के बने सिपाही बाँके, शोर बढ़ाते छुड़ा पटाखे।
सीमा पर दुश्मन आयेगा, इनसे पार नहीं पायेगा।
गीत खुशी के गाते हैं हम, प्रभु से यही मनाते हैं हम।
चाहे जैसी निशि हो काली, ज्योतित कर दे उसे दिवाली।
श्रीनाथ सिंह
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